Tuesday, May 4, 2010

देश


देश मेँ ,जब कहीँ भी ,
एक गोली भी दगी है ।
सच बताता हूँ ,
कलेजे मेँ हमारे ही लगी है ।
किन अभावोँ ने ,
मुझे जकड़ा नहीँ ।
किस विषम गति ने ,
मुझे पकड़ा नहीँ ।
किन्तु जाने कौन सी ,
निर्देश दीक्षा मेँ सिमटकर ,
एक चादर तानकर ,
होते हुए भी खो गया हूँ ।
और अब बिल्कुल-
जमूरा हो गया हूँ ।
घीँच काटी जा रही है .
आज मेरी आत्मा ,
मुझसे उचाटी जा रही है ।
किन्तु-यह जो सत्य है!
उसको समझ लो ।
और यह नाटक न समझो
लोग मर जायेँ हजारोँ,
या कि , ईश्वर!
मैँ ! कभी मरता नहीँ हूँ ।
अरे ! भूखण्ड हूँ मैँ
इमारत की तरह गिरता नहीँहूँ।
सोँचा भला मैँ कौन हूँ ?
बोलो अरे क्योँ मौन हो ?
तुम कौन हो ? तुम कौन हो ?